यह यकीनन किसी मासूम का कातिल होगा
हमने इस शख्स को हंसते हुए कम देखा है
इस वक़्त वहां कौन धुआं देखने जाए
अख़बार में पढ़ लेंगे कहाँ आग लगी है
डूबने वाले से साहिल की हकीकत पूछो
डूबने वाला ही साहिल का पता देता है
दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की
लोगों ने सहन को रास्ता बना लिया
खड़े हैं आप जिस तहरीर से ऊंची मीनार पर
सजाया है उसे शायद हमीं बदनाम लोगों ने
घरों में लोग मिलेंगे उतने ही छोटों कदों के
दरवाज़े जिस मकान के, जितने बुलंद हैं
पत्थर भी, संगमरमर भी, मिल जायेंगे बहुत
यह फैसला तो हो की गुनाहगार कौन है
कल अपना हाथ किसी हादसे में खो बैठा
वोह आदमी जो निहथों पर वार करता था
दामन झटक के छुडा के साथ जा रहे हो
पर मेरे दिल से यूं निकल कर जाओ तो जानूं
ग़म तह तो सिर्फ इसी बात का ग़म था
जहाँ कश्ती डूबी, वहां पानी कम था!
शाम होते ही चिरागों को बुझा देता हूँ
दिल ही काफी है तेरी याद में जाने को
खाना बदोश लोग हैं, घर कहाँ बनायेंगे
साया जहाँ मिलेगा वहीँ बैठ जायेंगे
मेरे होंठों पर खिले फूल चमेली के बहुत
तुमने देखा नहीं कभी मलिन को तरह
भीड़ में सबकी हाथों में शगुफ्ता फूल थे
सर मेरा ज़ख्मी बताओ किसके पत्थर से हुआ
नाव कागज़ की छोड़ दी मैंने
अब समंदर की ज़िम्मेदारी है
उनको जब होश न था, हमने संभाला उनको
उनको जब होश हुआ, तो हमें सँभालने न दिया!
कब्र पर केश बिछाए जब कोई महज़बीन रोती है
तब मुझे मालूम होता है, मौत कितनी हसीं होती है
इश्क-जौके नज़ारा, मुफ्त में बदनाम है
हुस्न खुद बेताब है, जलवा दिखने के लिए
पलकों पे आके आंसू थम गए इस तरह.
जैसे मुसाफिरों के, इरादे बदल गए
मकान मिटटी का, दरिया का किनारा है,
सोच रहा हूँ, बरसात कैसे कटेगी
आज इक बदली बरस कर, दिल में हलचल कर गयी
वरना इस ढलवां पर, कभी पानी ठहरा न था!
घर टपकता था, मेहमान था घर में
पानी पानी हो रही थी, आबरू बरसात में
Jun 15, 2009
Jun 12, 2009
Shayari - Borrowed
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो वो क्या जो दंत हीन, विष रहित, विनीत, सरल हो
जब तक इंसान की जेब खाली हैज़िन्दगी एक गालिज़ गाली है
सच पूछो तो शर में ही, बसती है दिप्ति विनय की संधि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमे शक्ति विजय की सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है
पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी डगमगाना भी ज़रूरी है जीने के लिए
गले लगाया था हमने सब ज़माने को हमीं पर उठती हैं अब उन्गैयाँ ज़माने की
हमने बना लिया है, नया फिर से आशियाँ यह बात जाकर किसी तूफ़ान से कह दो!
मकतबे इश्क में इक ढंग निराला देखा उनको छुट्टी न मिली, जिन्हें सबक याद हुआ ...
किसी के साथ दिल की हर ख़ुशी हो गई रुखसत बहारें जैसे कोई ले जाये गुलसितां से
निगाहे यार जो महेफिल में उत्त गयी होती तो खाली बज्म के सारे जाम भर गए होते
सलीका जिनको होता है ग़मे-दौरों में जीने का वो यूँ हर शीशे को पत्थर से टकराया नहीं करते
जब तक इंसान की जेब खाली हैज़िन्दगी एक गालिज़ गाली है
सच पूछो तो शर में ही, बसती है दिप्ति विनय की संधि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमे शक्ति विजय की सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है
पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी डगमगाना भी ज़रूरी है जीने के लिए
गले लगाया था हमने सब ज़माने को हमीं पर उठती हैं अब उन्गैयाँ ज़माने की
हमने बना लिया है, नया फिर से आशियाँ यह बात जाकर किसी तूफ़ान से कह दो!
मकतबे इश्क में इक ढंग निराला देखा उनको छुट्टी न मिली, जिन्हें सबक याद हुआ ...
किसी के साथ दिल की हर ख़ुशी हो गई रुखसत बहारें जैसे कोई ले जाये गुलसितां से
निगाहे यार जो महेफिल में उत्त गयी होती तो खाली बज्म के सारे जाम भर गए होते
सलीका जिनको होता है ग़मे-दौरों में जीने का वो यूँ हर शीशे को पत्थर से टकराया नहीं करते
Jun 9, 2009
Kuch Shair
पसीना मौत का माथे पे आया आइना लाओ
हम अपनी ज़िन्दगी की आखिरी तस्वीर देखेंगे
~~~~~~~~~~~~~~~~
किसी से हाल-इ-दिल-इ-बेकरार कह न सके
की चश्मे-खास में आके भी आंसू बह न सके
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
घर टपकता था, मेहमान था घर में
पानी पानी हो रही थी, आबरू बरसात में
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जो आँख वाले हैं उनकी जुबां पर ताले हैं
जो अँधा है वोह बोलता है, क्या किया जाए?
~~~~
लोग बाज़ार में आकर बिक भी गए
मेरी कीमत लगी की लगी रह गयी
हम अपनी ज़िन्दगी की आखिरी तस्वीर देखेंगे
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किसी से हाल-इ-दिल-इ-बेकरार कह न सके
की चश्मे-खास में आके भी आंसू बह न सके
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घर टपकता था, मेहमान था घर में
पानी पानी हो रही थी, आबरू बरसात में
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जो आँख वाले हैं उनकी जुबां पर ताले हैं
जो अँधा है वोह बोलता है, क्या किया जाए?
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लोग बाज़ार में आकर बिक भी गए
मेरी कीमत लगी की लगी रह गयी
पर न जाने बात क्या है?
पर न जाने बात क्या है
इन्द्र का आयुध जो पुरुष झेल सकता है,
सिंह से बाहें मिला कर खेल सकता है,
बुद्धि के रहते निरुपाय हो जाता है,
शक्ति के रहते, असहाय हो जाता है
बिद्ध हो जाता है, सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से
रामधारी सिंह "दिनकर"
इन्द्र का आयुध जो पुरुष झेल सकता है,
सिंह से बाहें मिला कर खेल सकता है,
बुद्धि के रहते निरुपाय हो जाता है,
शक्ति के रहते, असहाय हो जाता है
बिद्ध हो जाता है, सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से
रामधारी सिंह "दिनकर"
जीवन
जीवन - मानव शीघ्रता के साथ अबोध बचपन की धूलि क्रीडा, सरल बाल अवस्था की चपलता और उग्र यौवन की उच्चंकल्ताओं से अपने जीवन को विक्सित करता हुआ शांत विर्धवास्था की गम्भीरता को प्राप्त होता है. और, सांसारिक अनुभवों के भर से लदी हुई अपनी पलकों को सहज ही मूंदकर पूछता है "क्या मेरा यथेष्ट विकास हो चूका?" और, जैसे हृदय में ही बैठा हुआ कोई अपने नीरव स्वर में कह देता है, "अभी कहाँ," इसे सुनते ही, उसका शरीर फिर उन्ही घूलिकिरणों में खेलने लगता है, जहाँ से उसने अपना जीवन प्रारंभ किया था.
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