Jun 9, 2009

जीवन

जीवन - मानव शीघ्रता के साथ अबोध बचपन की धूलि क्रीडा, सरल बाल अवस्था की चपलता और उग्र यौवन की उच्चंकल्ताओं से अपने जीवन को विक्सित करता हुआ शांत विर्धवास्था की गम्भीरता को प्राप्त होता है. और, सांसारिक अनुभवों के भर से लदी हुई अपनी पलकों को सहज ही मूंदकर पूछता है "क्या मेरा यथेष्ट विकास हो चूका?" और, जैसे हृदय में ही बैठा हुआ कोई अपने नीरव स्वर में कह देता है, "अभी कहाँ," इसे सुनते ही, उसका शरीर फिर उन्ही घूलिकिरणों में खेलने लगता है, जहाँ से उसने अपना जीवन प्रारंभ किया था.

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